Tuesday, August 18, 2009

A requiem for my city

Khushwant Singh I guess.
The tragedy underlined is a tragedy I've identified with acutely.

लहजे में वो नफासत, वो रंग-ओ-बू कहाँ है?
वो दिल फरेब बातें, वोह गुफ्तगू कहाँ है?
था जिसपे नाज़ हमको, वो लखनऊ कहाँ है?

वो खुश्बुओं के रेले, दिल्कश हसीन मेले
दिल की जवाँ तरंगें,वो ख्वाहिशें उमंगें
जैसे बरस रही हो, रस रंग की फुवारें
अब तक बसी हैं दिल में,लव लेन की बहारें

अब भी है काफ़ी हाउस, लेकिन था एक ज़माना
जब शायरों अदीबों का, यही था ठिकाना
सिगरेट का धुआं जैसे हर फ़िक्र का बादल था

यह गंज यूँ तो अब भी चाहत है लखनऊ की
बदली हुई सी लेकिन रंगत है लखनऊ की
अंदाज़ वो नहीं हैं आदाब वो नहीं हैं,
आँखें वही हैं लेकिन अब ख्वाब वो नहीं हैं

इखलास की वो बस्ती वीरान हो गई है
इस भीड़ में शेहेर की पहचान खो गई है
तहजीब मुख्तलिफ है माहौल भी जुदा है
अब कैसे कह दें हम लखनऊ पर फ़िदा

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