Wednesday, September 14, 2011

Reaction to a rejection

For a man who did not speak much about himself, and had had no real confidant, he was driven by desperation to tell her, then, everything. Everything: the casual cruelties and betrayals, pinpricks, which had nailed him forever to what he had become since, faiths destroyed; memories so primal and gut-wrenchingly felt that he had not even acknowledged them to himself. But, to win her back, he bared himself of a lifetime accumulation of subterfuges, unshed before even in the privacy of his own company. He exposed the very underpinnings of his vulnerabilities, and waited throbbing and naked for her verdict.
A seven-day wait and then a two-sentenced rejection copied and pasted from the last mail. A few hours before the mail, she had blocked him in all the social networking sites and on her phone. It was in the end a cavalier dismissal of his stripped essence: the doorman called in to show him the way out , not granting him even the time of picking the pile of garments lying at his feet. He shivered with the pitiable indignity of a flower plucked of all its petals.
He shrivelled inside himself like a worm curling into a ball at a poke. He swore to never, never ever, tell anyone anything about himself. To never let anyone come close enough.
One day in class, a gang of pranksters from his class had cornered him to sing and he, innocent of their intention, had sang with his heart, only to be mocked by the burst of laughter when he finished. Since that day he had never sung to anyone else, and even to himself, restrained himself to humming when moved by an inspiration or notes of an old- memory wafting from somewhere, and only occasionally betrayed his resolve in snatches when alone and absolutely outside the earshot of anyone else.
To be joy, one has to sing, unfettered and unashamed. To love, one has to bare. But for him, the fear of the sting of rejection again became sharper than the pang for laughter and love.

Saturday, September 10, 2011

उसके हाथ - १

बात उन दिनों की है जब मैं कॉलेज से निकल कर दिल्ली में पहली-मर्तबा नौकरी कर रहा था. नौकरी में उस वक़्त के हिसाब से पैसे ज्यादाही मिलते थे और काम भी बहुत ज्यादा नहीं था. नयी नयी नौकरी थी, हाथ में पहली बार पैसे आ रहे थे. दोस्तों के साथ बहुत ऐय्याशी के साथ उड़ाये पर जल्दी ही उकता भी गया. दोस्तों की बातें फूहड़ और बकवास लगने लगी – हर वकत वोही टर्र- टर्र – लड़कियों के पीछे लार टपकाना और डींगे हांकना. मैं उनसे अलग ही हो गया. नौकरी में भी उत्साह जल्दी ही मर गया या यूँ कहिये की मार दिया गया. समझ नहीं आ रहा था की इतना कम काम करने के लिए मुझे इतने पैसे क्यूँ मिल रहे थे और इतनी देर क्यूँ बैठना पड़ता था. कॉलेज में तो तब भी क्लास्सेस बंक कर सकते थे, यहां तो स्कूल वाला हाल था. उस पर मेरा बॉस भी अव्वल दर्जे का घटिया आदमी था. बहुत कम आता था और उम्र काफी ढल चुकी थी उसकी. इसीके डर से घूमता रहता था की कहीं नौकरी न चली जाये या कोई मजाक न कर रहा हो. अपने काम से ज़्यादा यह फिक्र में रहता था की दूसरे क्या काम कर रहे हैं. दूसरों की परेशानियों और विपदा के किस्सों में उससे बड़ा मज़ा आता था पर ऐसे बनता जैसे सहानभूति कर रहा हो. हाय राम, बेचारा, च-च! मुझे ऐसे आदमियों से सख्त घृणा है जो मुंह पर कुछ और दिल में कुछ और रखते हैं.
कई बार सोचा नौकरी बदल लूं. पर आर्थिक मंदी के दिन आ गए थे – चाहता भी तो कहीं और नौकरी नहीं मिलती, या यूँ कहिये ढूँढने की मेहनत नहीं करना चाहता था. नौकरी मिल भी जाती तो और मेहनत करनी पड़ती जो मेरे उस वकत की मानसिक दशा में कम ही मुमकिन दिखाई देता था. जिस तरह से एक नयी साइकिल को स्थिरावस्था से गति देने से पुरानी साइकिल को कभी कभार पेडल मार कर चलाते रहना आसान होता है, ऊसी तरह नौक्रियों का हाल होता है. पुरानी नौकरी में बस सही टाइम से आओ, दर्जनों बार उठ कर चाय पियो, जो काम आये उसे कर दो. काम भी अक्सर ऐसा होता है की खाना-पूर्ती – चाहे जितना बेमन से किया हो, बस कुछ-कुछ हो जाना चाहिए. अच्छा कर दो तो शायद उल्टा भोगना ही पड़े -- ऊपर बैठने वाले पीठ पर पिशाच की तरह बैठ जायेंगें और अपना सारा काम भी आप ही से करायेगें और सारा श्रेय आपस में ही बाँट लेंगें. काम में अगर बेरुखी और मंदी का आलम रहे तो आप भीड़ से बाहर नहीं दिखोगे, कोई खून चूसने नहीं उतरेगा. कभी कभार टिप्पणियाँ मिल सकती हैं पर उसकी भी उम्मीद कम ही है – ऐसी नौकरियों में काम का स्तर बहुत नीचे होता है. कुछ हैं जो पूरा भार संभालते हैं: कुछ इसलिए के बेचारे मिजाज़ के मारे हैं – आदत है की अपना स्तर न गिरने दें चाहे स्थिति जितनी ही खराब हो – मैं ऐसे लोगों को मूर्ख ही मानता हूँ, और अपने पिताजी की गिनती ऐसे ही मूर्खों की सभा में करता हूँ. और कुछ हैं जो सोचते हैं की, बस, अगर अच्छा काम करेंगें तो तरक्की और जल्द मिलेगी. पर वो भी नासमझ हैं. ऊपर उठने के लिए काम के अलावा, बहुत मस्खे मारने पड़ते हैं. मेरे कुछ संगियों ने यह राह भी अपनाई. मेरे बौस की हर बात में हाँ में हाँ मिलाते, बल्कि उसके उत्सुक कपटी कानों में अफवाह-बाज़ी करते, और उसके मजाकों पर ऐसे ठहाके लगा कर हँसते की वो भी समझ जाता की ज़बरदस्ती हंस रहे हैं. एक जनाब तो दिवाली पर उसके लिए घर से इतने पैकेट मिठाई लाये जैसे अपनी लड़की का रिश्ता करने आये हों. इनमें से ज़्यादातर मेरे कॉलेज के सहपाठी ही थे और इन्ही के साथ मेरा शुरुआत में बाहर उठाना बैठना था. शायद इन्ही वजहों से उनसे मैं दूर होता गया. कॉलेज में जो कुछ-कुछ अपनी खुद की पहचान और दुनिया की ओछी रीतियों से दूर रहना की बातें थी, उन्हें शायद बातें जान कर हॉस्टल के उन बरामादों में ही दफना कर आना चाहिये  था. उन्हें उस तुच्छ इंसान, जो सहयोग से हमारा बौस था, की चापलूसी करते देख कर लगता था जैसे कॉलेज में इंतिहान के बाद चंद नंबर बढ़वाने के लिए वो प्रोफेस्सरों के कमरों के बाहर चक्कर लगाया करते थे. जैसे भूके मरियल कुत्ते रोटियों के टुकड़ों के लिए किसी कूड़ेदान के आस-पास मंडरा रहे हों.
उनके साथ रहते-रहते भी मैं अकेले रहने लगा. पहले तो मैंने उनके साथ बेबाक दारु-नशा किया, थोड़े दिन जुए की भी लत् पाली, पैर मुझे इन सब नशों में कोई दिलचस्पी पैदा हुई. दूसरों को यह सब करता देख कर समझ गया था कि जिससे वो उत्साह समझ रहा हैं, वो असल में हकीकत से भागना है. मुझे अपनी हकीकत से डर नहीं था, मैं उससे समझना चाहता था जिसमें मैं असमर्थ था. मैंने सारे ऐब एक-एक कर के पाले, इस हद्द तक किये कि दोस्त भी डर गए: बड़े-बड़े ब्रांडों के जूते-कपड़े खरीद कर फ़ेंक दिए, जुआ खेला तो ऐसा खेला की सब दांव पर लगा कर हारा, दारु पी तो धुत्त नशे में सड़क पर ही गिर कर सो गया, एक-दो बार फिजूल की मार-पिटाई भी की – और फिर यकायक सब छोड़ दिया. अब मेरे दोस्त जब पार्टी करने बाहर जाते, तो बहाना मार कर घर पर बैठा रहता और कुछ नहीं करता. पहले पढ़ने कि थोड़ी-बहुत आदत थी पर किताब अब उठाई ही नहीं जाती थी. टीवी पर जो शो आते बहुत फूहड़ लगते थे, समाचार में रिपोर्टरों की बेफिजूली की उत्तेजना और चिंता के स्वांग को देख कर उन्हें जल्द-से-जल्द जिस खौफनाक मौतों का वो तमाशा बना रहे थे उससे कहीं बदत्तर मौत कि दुआ देता. घर पर फोन करो तो पिताजी से मेहनत के ऊपर लेक्चर और माँ से दूर के चाचा-ताऊ के किस्से सुनना पड़ता जिनके निजी जीवन से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी. मुझे उन दिनों बस कुछ कलात्मक फिल्मों देखने का मन होता पर जब वो देखता तो बहुत बेकरारी होती की जाऊं कहीं और कुछ करूं पर जब आजीवन कुछ न किया हो, तो अब करता तो कहाँ से शुरू करता. वोही साइकिल का उदारहण – इस पुरानी खटारा पर निरुत्साहित पेडल मारे जा रहा था, चाहे कितना ही उतर के बदलने का मन न हो.

उसी वकत मैंने एक दो लडकियां पटांईं. की शायद किसी प्रेमिका कि सौबात में ही राहत मिले. बस राह-फिरते जो अच्छी लगती जा कर पूछ लेता. कुछ ने जूती दिखाई, कुछ डर कर भाग गयीं, कुछ शर्माते-शर्माते मान गयीं. उन्हें मैंने कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी पिलाई, लोदी बाग में हाथ पकड़ कर घूमा, घर ला कर चुम्मा-चाटी की. पर क्षण भर के मज़े के अलावा और कुछ न मिला. एक भी लड़की न मिली जिसकी अक्ल एढ़ी में न बैठी हो, जो खुद को दुनिया कि नज़रों में न देखती हो. कहने को कुछ नहीं होता था पर मुंह पर कभी ताला नहीं पड़ता. सोचा सभी लडकियां ऐसी हो होती हैं – जो बाद में ही पता चला कि ऐसा नहीं है. शायद मेरा उस वकत भाग्य ही खराब था.
इसी बीच एक लड़की मेरे गले पड़ गयी. शादी की रट लगा ली. धमकी देने लगी कि मेरे नाशिक-वाले घर पहुँच जायेगी पर मैंने उसे वहाँ का पता पता न लगने दिया. फिर कहने लगी कि उसने अपने घर पर सब बता दिया है और अल्लाहाबाद से उसके पिता रिश्ता पक्का करने कभी भी मेरी चौखट पर आ धम्केंगें. मैं परेशान हो गया और सोचा कि अब तो कोई और मकान ढूँढना ही होगा. अपने फ्लैट के मित्रों से मैं वैसे ही तंग आ गया था और कई बार ठानी थी कि अकेले ही कहीं खिसक लूँ.  पर मैं निहायती आलसी आदमी हूँ. पीठ पर खुजली करने के लिए भी हाथ तभी उठाता हूँ जब बर्दाश्त के बाहर हो जाये. सोचा कि चलो इस बहाने इन दोस्तों – जिनसे न पहले कि यारी, न कोई सहानुभुति रह गयी थी – इनसे निजात मिलेगी.

Wednesday, September 07, 2011

Rote Rote hansnaa

तुम इतना जो रो रहे हो
क्या ख़ुशी है जो छिपा रहे हो?

Hmm. The vice-versa doesn't really work.
But I would love to see a guy serenade the family of a bomb victim with this, softly and melodiously. 

Tuesday, September 06, 2011